शिक्षा की अवधारणा ने बदला शिक्षक का महत्व
नई दिल्ली: 5 सितम्बर को डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के
जन्मदिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने की परंपरा बहुत पुरानी है।
शिक्षक कौन होता है और उसका हमारे जीवन में क्या महत्त्व है? इस प्रश्न का
उत्तर जानने के लिए पहले यह जानना आवश्यक है कि शिक्षा क्या है?
आज माता-पिता बच्चे के पैदा होने से पहले ही स्कूल में उसका रजिस्ट्रेशन करा देते हैं, स्कूल के अलावा छोटे-छोटे बच्चों को कोचिंग भेजा जाता है। जहाँ पहले माता-पिता पूरे साल में एक बार भी अध्यापक से नहीं मिलते थे, वहीं अब वे साल में 10 बार स्कूल जाकर उसकी पूरी रिपोर्ट लेते हैं। इस सबके अलावा प्रतिवर्ष शिक्षा के क्षेत्र में विकास के लिये नयी-नयी योजनायें आती हैं।
वास्तव में शिक्षा है क्या?
क्या बच्चों की स्कूली पढ़ाई ही शिक्षा है या इससे कुछ अधिक है? बच्चे जो घर में सीखते हैं, दोस्तों से सीखते हैं, अपने अनुभव से सीखते हैं, वह सब क्या है?
जब शिशु पैदा होता है तो उसके पास केवल प्रकृति प्रदत्त ज्ञान होता है, वह ज्ञान जो प्रकृति के हर प्राणी के पास होता है। जो बात उसे बाकी जीवों से अलग करती है, वह है सीखने की अपार क्षमता। इस क्षमता के कारण वह पैदा होने के बाद से प्रतिदिन कुछ नया सीखता है। इस सीखने का पहला चरण शारीरिक ज्ञान है। इसके अंतर्गत वह अपने शरीर और उसकी आवश्यकताओं जैसे शौच, भूख, प्यास, दर्द, नींद आदि से अवगत होता है। दूसरे चरण में वह भावनात्मक आवश्यकताओं को समझता है जैसे स्नेह, रिश्ते, स्पर्श आदि।
तीसरे चरण में सामाजिक आवश्यकताओं को जानता है और चौथा चरण स्वयं से साक्षात्कार का है। शैशव काल से लेकर मृत्युपर्यंत, इन चारों चरणों में व्यक्ति जो भी सीखता है वह शिक्षा है। चाणक्य हों या कबीर, प्लेटो हों या अरस्तु, नेहरु हों या महात्मा गाँधी, लगभग सभी विचारकों ने शिक्षा के क्षेत्र को अत्यधिक महत्त्व दिया और इसकी बेहतरी के लिए प्रयास भी किया।
गुरु और शिक्षक
शिक्षा से ही फिर अन्य दो शब्दों को प्रादुर्भाव हुआ, शिक्षक और शिक्षार्थी। शिक्षा देने वाला शिक्षक और शिक्षा ग्रहण करने वाला शिक्षार्थी। शिक्षा के मानव जीवन में महत्त्व के कारण ही शिक्षक का स्थान भी अत्यधिक महत्वपूर्ण बन गया। जिस प्रकार मानव सभ्यता का प्रारंभ भारत से हुआ उसी प्रकार शिक्षा पर चिंतन भी भारत से ही शुरू हुआ। गुरुकुल की अवधारणा इसका पहला चरण था। आदि काल में शिक्षा का क्षेत्र व्यापक था, पर उसका अधिकार सीमित था। यह अपने विकसित रूप में सबको उपलब्ध नहीं थी। चुनिन्दा जातियां और कुल ही इसके अधिकारी थे।
लेकिन शिक्षा का क्षेत्र व्यापक होने के कारण शिष्य को पाकशास्त्र, गायन, नृत्य, शास्त्र, वेद, नीति, अस्त्र-शस्त्र के अलावा लकड़ी काटना तक सिखाया जाता था, भले ही वह राजकुमार ही क्यों न हो। माता-पिता अपनी संतानों को गुरु के सुपुर्द कर देते थे और शिक्षा समाप्त होने के बाद ही वे अपने घर को प्रस्थान करते थे।
गुरुकुल में निवास के दौरान छात्रों किसी भी सूरत में परिवार से कोई संपर्क नहीं रहता था और वे पूर्णतया गुरु के ही संरक्षण में रहते थे। इसी कारण वे पूरी तरह गुरु निष्ठ होते थे और उस समय गुरु का आदर ईश्वर के समान ही था। गुरु भी अपने आचरण में इस सम्मान का पात्र बनने का पूरा प्रयास करते थे। उनके लिए शिष्य का हित ही सर्वोपरि था।
आज गुरु का स्थान शिक्षक ने ले लिया है यह कहना पूरी तरह सही तो नहीं होगा, पर और कोई विकल्प भी नहीं है। आज शिक्षा की अवधारणा ही बदल गयी है और इसी कारण शिक्षक का स्थान और महत्त्व भी घट गया है। आज शिक्षा जीवन नहीं, जीवन का एक अंग मात्र है, वह अंग जो जीविकोपार्जन का प्रबंध करता है। शिक्षा का अर्थ बदलने के साथ ही सब कुछ बदल गया। अब वह शिक्षा उपयोगी है, जो आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करे।
शिष्य अर्थ से संचालित है तो शिक्षक कैसे इससे वंचित रह सकते हैं। सो सबके लिए शिक्षा का अर्थ केवल अर्थ ही रह गया। इसका मूल अर्थ कहीं खो सा गया। लेकिन यह बदलाव केवल प्रयोग में था, इसीलिए शिक्षा की बेहतरी के लिए निरंतर प्रयास चलता रहा। इसी क्रम में सीबीएसई ने सीसीई पैटर्न लागू किया जिसमें बालक के सम्पूर्ण विकास को ध्यान में रखकर पूरा पाठ्यक्रम बनाया गया।
इसमें शिक्षक की भूमिका फिर महत्वपूर्ण हो गयी। अब वह केवल कॉपी जांचकर पास-फेल करने वाला कर्मचारी नहीं रह गया। एक बार फिर उसे बालक के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को समझने और उसे निखारने का ज़िम्मा दिया गया। सभी शिक्षक अपने को इस भूमिका में फिट नहीं पाते सो कार्यभार बढ़ने से परेशान रहते हैं लेकिन अपनी सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए उन्हें अपने को इस भूमिका के लिए तैयार करना होगा। उन्हें कबीर का वह कुम्हार बनना होगा जो शिष्य रूपी कुम्भ को आकार देता है।
शिक्षक-छात्र संबंध
यदि देखा जाए तो सीबीएसई की यह पहल जड़ों की ओर लौटने का एक प्रयास ही कहा जायेगा। सीसीई एक तरह से भारतीय गुरुकुल की अवधारणा का ही एक अंग लगती है। अंतर है तो केवल शिक्षक या गुरु के प्रति समर्पण भाव का। यह समर्पण न तो शिक्षार्थियों में है और न ही उनके अभिभावकों में। इसके लिए केवल इन दोनों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
दूसरों का हमारे प्रति समर्पण हमारी पूँजी है और इस पूँजी को कमाने की ज़िम्मेदारी शिक्षक की ही है। जिन शिक्षण संस्थानों ने इसका प्रयास किया है उनके यहाँ अपने लोग अपने बच्चे छोड़ते हैं। यही कारण है कि इतने डे बोर्डिंग स्कूल और होस्टल्स चल रहे हैं।
इस आपसी विश्वास को और सुदृढ़ करना होगा। इस विश्वास को बढ़ाने की ज़िम्मेदारी इतनी संस्थान की नहीं है जितनी शिक्षकों की है क्योंकि अंत में शिक्षक ही वह कड़ी होता है जो बालकों से सीधे जुड़ा होता है। ऐसे में सबसे उत्तम है कि वह स्वयं अपनी ज़िम्मेदारी तय करे। इस ज़िम्मेदारी में केवल योजनाओं का क्रियान्वयन ही नहीं है, बल्कि उसका व्यक्तिगत आचरण भी है। अपने आचरण को आदर्श बनाकर ही वह छात्रों से आदर्श आचरण की अपेक्षा कर सकता है। झूठ बोलकर छुट्टी लेने वाला शिक्षक छात्रों से सत्य की अपेक्षा नहीं कर सकता।
शिक्षा का उद्देश्य अपने जीवन में उतारकर ही एक शिक्षक उस उद्देश्य की प्राप्ति कर पायेगा और तब शिक्षक-छात्र का यह संबंध सही मायनों में अपनी आदर्श स्थिति को पा लेगा। वह आदर्श स्थिति, जिससे शिक्षा का आरंभ हुआ, जो गुरु-शिष्य संबंध पर आधारित थी। आदर्श शिक्षक-छात्र संबंध से प्राप्त शिक्षा ही बाकी शिक्षा का भी आधार बनती है।
आदर्श शिक्षक
जिस प्रकार घोड़ा भूखा मरने की हालत में भी मांस नहीं खा सकता, उसी प्रकार स्वस्थ व्यक्तित्व का स्वामी किसी भी परिस्थिति में अनैतिक कार्यों में लिप्त नहीं हो सकता। स्कूली शिक्षा के अलावा भी आज बच्चों के पास सीखने के लिए बहुत सी बातें हैं और वे सभी अच्छी नहीं हैं। आदर्श शिक्षक के छात्र इतने परिपक्व हो जाते हैं कि निर्णय ले सकें कि इस अनंत ब्रह्माण्ड में उन्हें क्या सीखना है और क्या नहीं। यह समझ ही व्यक्ति निर्माण है और इस समझ को विकसित करना हर शिक्षक की ज़िम्मेदारी।
इस ज़िम्मेदारी से भागने वाला व्यक्ति शिक्षक नहीं, केवल एक वेतनभोगी कर्मचारी है जिसके लिए शिक्षक दिवस के आयोजन का कोई औचित्य नहीं। अंग्रेज़ी की कहावत है, यदि आप राजा का सम्मान पाना चाहते हैं तो राजा की तरह व्यवहार कीजिये। इस सन्दर्भ में कह सकते हैं, कि यदि आप गुरु का सम्मान पाना चाहते हैं तो गुरु की तरह व्यवहार कीजिये।
आज माता-पिता बच्चे के पैदा होने से पहले ही स्कूल में उसका रजिस्ट्रेशन करा देते हैं, स्कूल के अलावा छोटे-छोटे बच्चों को कोचिंग भेजा जाता है। जहाँ पहले माता-पिता पूरे साल में एक बार भी अध्यापक से नहीं मिलते थे, वहीं अब वे साल में 10 बार स्कूल जाकर उसकी पूरी रिपोर्ट लेते हैं। इस सबके अलावा प्रतिवर्ष शिक्षा के क्षेत्र में विकास के लिये नयी-नयी योजनायें आती हैं।
वास्तव में शिक्षा है क्या?
क्या बच्चों की स्कूली पढ़ाई ही शिक्षा है या इससे कुछ अधिक है? बच्चे जो घर में सीखते हैं, दोस्तों से सीखते हैं, अपने अनुभव से सीखते हैं, वह सब क्या है?
जब शिशु पैदा होता है तो उसके पास केवल प्रकृति प्रदत्त ज्ञान होता है, वह ज्ञान जो प्रकृति के हर प्राणी के पास होता है। जो बात उसे बाकी जीवों से अलग करती है, वह है सीखने की अपार क्षमता। इस क्षमता के कारण वह पैदा होने के बाद से प्रतिदिन कुछ नया सीखता है। इस सीखने का पहला चरण शारीरिक ज्ञान है। इसके अंतर्गत वह अपने शरीर और उसकी आवश्यकताओं जैसे शौच, भूख, प्यास, दर्द, नींद आदि से अवगत होता है। दूसरे चरण में वह भावनात्मक आवश्यकताओं को समझता है जैसे स्नेह, रिश्ते, स्पर्श आदि।
तीसरे चरण में सामाजिक आवश्यकताओं को जानता है और चौथा चरण स्वयं से साक्षात्कार का है। शैशव काल से लेकर मृत्युपर्यंत, इन चारों चरणों में व्यक्ति जो भी सीखता है वह शिक्षा है। चाणक्य हों या कबीर, प्लेटो हों या अरस्तु, नेहरु हों या महात्मा गाँधी, लगभग सभी विचारकों ने शिक्षा के क्षेत्र को अत्यधिक महत्त्व दिया और इसकी बेहतरी के लिए प्रयास भी किया।
गुरु और शिक्षक
शिक्षा से ही फिर अन्य दो शब्दों को प्रादुर्भाव हुआ, शिक्षक और शिक्षार्थी। शिक्षा देने वाला शिक्षक और शिक्षा ग्रहण करने वाला शिक्षार्थी। शिक्षा के मानव जीवन में महत्त्व के कारण ही शिक्षक का स्थान भी अत्यधिक महत्वपूर्ण बन गया। जिस प्रकार मानव सभ्यता का प्रारंभ भारत से हुआ उसी प्रकार शिक्षा पर चिंतन भी भारत से ही शुरू हुआ। गुरुकुल की अवधारणा इसका पहला चरण था। आदि काल में शिक्षा का क्षेत्र व्यापक था, पर उसका अधिकार सीमित था। यह अपने विकसित रूप में सबको उपलब्ध नहीं थी। चुनिन्दा जातियां और कुल ही इसके अधिकारी थे।
लेकिन शिक्षा का क्षेत्र व्यापक होने के कारण शिष्य को पाकशास्त्र, गायन, नृत्य, शास्त्र, वेद, नीति, अस्त्र-शस्त्र के अलावा लकड़ी काटना तक सिखाया जाता था, भले ही वह राजकुमार ही क्यों न हो। माता-पिता अपनी संतानों को गुरु के सुपुर्द कर देते थे और शिक्षा समाप्त होने के बाद ही वे अपने घर को प्रस्थान करते थे।
गुरुकुल में निवास के दौरान छात्रों किसी भी सूरत में परिवार से कोई संपर्क नहीं रहता था और वे पूर्णतया गुरु के ही संरक्षण में रहते थे। इसी कारण वे पूरी तरह गुरु निष्ठ होते थे और उस समय गुरु का आदर ईश्वर के समान ही था। गुरु भी अपने आचरण में इस सम्मान का पात्र बनने का पूरा प्रयास करते थे। उनके लिए शिष्य का हित ही सर्वोपरि था।
आज गुरु का स्थान शिक्षक ने ले लिया है यह कहना पूरी तरह सही तो नहीं होगा, पर और कोई विकल्प भी नहीं है। आज शिक्षा की अवधारणा ही बदल गयी है और इसी कारण शिक्षक का स्थान और महत्त्व भी घट गया है। आज शिक्षा जीवन नहीं, जीवन का एक अंग मात्र है, वह अंग जो जीविकोपार्जन का प्रबंध करता है। शिक्षा का अर्थ बदलने के साथ ही सब कुछ बदल गया। अब वह शिक्षा उपयोगी है, जो आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करे।
शिष्य अर्थ से संचालित है तो शिक्षक कैसे इससे वंचित रह सकते हैं। सो सबके लिए शिक्षा का अर्थ केवल अर्थ ही रह गया। इसका मूल अर्थ कहीं खो सा गया। लेकिन यह बदलाव केवल प्रयोग में था, इसीलिए शिक्षा की बेहतरी के लिए निरंतर प्रयास चलता रहा। इसी क्रम में सीबीएसई ने सीसीई पैटर्न लागू किया जिसमें बालक के सम्पूर्ण विकास को ध्यान में रखकर पूरा पाठ्यक्रम बनाया गया।
इसमें शिक्षक की भूमिका फिर महत्वपूर्ण हो गयी। अब वह केवल कॉपी जांचकर पास-फेल करने वाला कर्मचारी नहीं रह गया। एक बार फिर उसे बालक के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को समझने और उसे निखारने का ज़िम्मा दिया गया। सभी शिक्षक अपने को इस भूमिका में फिट नहीं पाते सो कार्यभार बढ़ने से परेशान रहते हैं लेकिन अपनी सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए उन्हें अपने को इस भूमिका के लिए तैयार करना होगा। उन्हें कबीर का वह कुम्हार बनना होगा जो शिष्य रूपी कुम्भ को आकार देता है।
शिक्षक-छात्र संबंध
यदि देखा जाए तो सीबीएसई की यह पहल जड़ों की ओर लौटने का एक प्रयास ही कहा जायेगा। सीसीई एक तरह से भारतीय गुरुकुल की अवधारणा का ही एक अंग लगती है। अंतर है तो केवल शिक्षक या गुरु के प्रति समर्पण भाव का। यह समर्पण न तो शिक्षार्थियों में है और न ही उनके अभिभावकों में। इसके लिए केवल इन दोनों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
दूसरों का हमारे प्रति समर्पण हमारी पूँजी है और इस पूँजी को कमाने की ज़िम्मेदारी शिक्षक की ही है। जिन शिक्षण संस्थानों ने इसका प्रयास किया है उनके यहाँ अपने लोग अपने बच्चे छोड़ते हैं। यही कारण है कि इतने डे बोर्डिंग स्कूल और होस्टल्स चल रहे हैं।
इस आपसी विश्वास को और सुदृढ़ करना होगा। इस विश्वास को बढ़ाने की ज़िम्मेदारी इतनी संस्थान की नहीं है जितनी शिक्षकों की है क्योंकि अंत में शिक्षक ही वह कड़ी होता है जो बालकों से सीधे जुड़ा होता है। ऐसे में सबसे उत्तम है कि वह स्वयं अपनी ज़िम्मेदारी तय करे। इस ज़िम्मेदारी में केवल योजनाओं का क्रियान्वयन ही नहीं है, बल्कि उसका व्यक्तिगत आचरण भी है। अपने आचरण को आदर्श बनाकर ही वह छात्रों से आदर्श आचरण की अपेक्षा कर सकता है। झूठ बोलकर छुट्टी लेने वाला शिक्षक छात्रों से सत्य की अपेक्षा नहीं कर सकता।
शिक्षा का उद्देश्य अपने जीवन में उतारकर ही एक शिक्षक उस उद्देश्य की प्राप्ति कर पायेगा और तब शिक्षक-छात्र का यह संबंध सही मायनों में अपनी आदर्श स्थिति को पा लेगा। वह आदर्श स्थिति, जिससे शिक्षा का आरंभ हुआ, जो गुरु-शिष्य संबंध पर आधारित थी। आदर्श शिक्षक-छात्र संबंध से प्राप्त शिक्षा ही बाकी शिक्षा का भी आधार बनती है।
आदर्श शिक्षक
जिस प्रकार घोड़ा भूखा मरने की हालत में भी मांस नहीं खा सकता, उसी प्रकार स्वस्थ व्यक्तित्व का स्वामी किसी भी परिस्थिति में अनैतिक कार्यों में लिप्त नहीं हो सकता। स्कूली शिक्षा के अलावा भी आज बच्चों के पास सीखने के लिए बहुत सी बातें हैं और वे सभी अच्छी नहीं हैं। आदर्श शिक्षक के छात्र इतने परिपक्व हो जाते हैं कि निर्णय ले सकें कि इस अनंत ब्रह्माण्ड में उन्हें क्या सीखना है और क्या नहीं। यह समझ ही व्यक्ति निर्माण है और इस समझ को विकसित करना हर शिक्षक की ज़िम्मेदारी।
इस ज़िम्मेदारी से भागने वाला व्यक्ति शिक्षक नहीं, केवल एक वेतनभोगी कर्मचारी है जिसके लिए शिक्षक दिवस के आयोजन का कोई औचित्य नहीं। अंग्रेज़ी की कहावत है, यदि आप राजा का सम्मान पाना चाहते हैं तो राजा की तरह व्यवहार कीजिये। इस सन्दर्भ में कह सकते हैं, कि यदि आप गुरु का सम्मान पाना चाहते हैं तो गुरु की तरह व्यवहार कीजिये।
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